यह रात कटे अब कटे नही !
By Keshav Jha
यह रात कटे अब कटे नही ,
आभा प्रलय की हटे नही ,
यह रात कटे अब कटे नही ।।
कुम्भकरण मेघनाद समर्पण ,
युद्ध मे किया था प्राण जब अर्पण ,
कटा सिर मेघनाद का जब था ,
हृदय में मेरे तब आग लपटा था ,
अंतिम रात यह युद्ध से पहले ,
कर लूं मन को क्रुद्ध मैं पहले ,
विपदा संग्राम की छटे नही ,
यह रात कटे अब कटे नही ।।
कल जाने संग्राम में क्या होगा ?
युद्ध निरंतर या विराम होगा ,
यह कैसी उलझन है मन मे ,
दो सन्यासी दंडक वन के ,
लंका में चहुँओर त्राहिमाम है ,
सैनिकों को भी तनिक न आराम है ,
चिंता समर की घटे नही ,
यह रात कटे अब कटे नही ।।
त्रिभुवन विजेता असहाय खड़ा है ,
हाय ! क्या करे ? समस्या बड़ा है ,
सोच बुद्धि मलिन पड़ी है ,
लंका वीर विहीन खड़ी है ,
एकल दशानन क्या – क्या करे ?
कैसे अपने झोली में जीत भरे ,
प्रातः भोर का पौ क्यों फ़टे नही ?
यह रात कटे अब कटे नही
धीर नायक गंभीर हुए है ,
रजनी से अब अधीर हुए है ,
मनुष्यता का कर्ज चुकाते ,
कुश की सेज भू पर बिछाते ,
फन शेषनाग का छत्र नही ,
चरणों पर श्री की नेत्र नही ,
लंकापति राम नाम रटे नही ,
यह रात कटे अब कटे नही ।।
सिया वियोग अब सहा नही जाता ,
बात हिय की लखन से कहा नही जाता ,
भरत रिपु बाट जोह रहे होंगे ,
प्रजा समेत सब रो रहे होंगे ,
कल अंतिम रण का बिगुल बजेगा ,
गदा बाण और त्रिशूल सजेगा ,
अधीर समक्ष धैर्य डटे नही यह रात कटे अब कटे नही ,
अनुज को जब बाण लगा था ,
तब जननी का वचन ठगा था ,
माना धर्म हमारे पक्ष में ,
किन्तु बलि दशानन विपक्ष में ,
विभावरी की कठिन परीक्षा ,
अभी तो होगी धैर्य की समीक्षा ,
विरक्त गर्त क्यों पटे नही ,
यह रात कटे क्यों कटे नही ।।
सच है समर पुरुषों को शोभे ,
परिणाम इसका पर स्त्रियाँ भोगे ,
मांग की सिंदूर रेखा कल किसी की सिमटेगी ,
सीता भरेगी सिसकियाँ या मंदोदरी कल सिसकेगी ?
पाप पुण्य का खेल है सारा ,
पाप से पूण्य क्या कभी हारा !!
मंदोदरी की चिंता घटे नही ,
यह रात कटे अब कटे नही ।।
पुत्र अनुज सब हुए बलिदानी ,
लंकाधिपति स्वयं इतने ज्ञानी ,
क्यों सीता का हरण किया था ?
राम ने जब सिया वरण किया था ,
कैसे स्वामी विजय की प्रार्थना करूँ ,
कैसे पुण्य छोड़ पाप की गठरी धरूँ ,
सुलोचना की छवि आंखों से हटे नही ,
यह रात कटे अब कटे नही ।।
भूमिजा मन ही मन विचारी ,
नारी जीवन सदा से भारी ,
धर्म संकट में उस क्षण मैं थी ,
लखन का कहा कि ऋषि सेवा ? इस भ्रम में थी ,
जानकी रघुवर के दर्शन को तरसे ,
दृग से उसके टसुआ बरसे ,
मैथिली का दुख किसी से बंटे नही ,
यह रात कटे अब कटे नही ।।
हे नाथ ! रघुविर कब आओगे ?
बिरह की ज्वाला कब बुझाओगे ,
रावण तो कुकर्मी है , इतना बड़ा अधर्मी है ,
यह निशा अत्यंत ही निर्दयी ,
बिताए बीते न अति निर्भयी ,
अब और संताप मुझसे सटे नही ,
यह रात कटे अब कटे नही ।।
कल भूल का मेरे परिणाम है ,
अंतिम समर का मान है ,
वह रावण छल में प्रवीण है ,
रथ उसका अत्यंत ही नवीन है ,
मेरे प्रभु भू से लड़ेंगे कैसे ?
लंकापति का प्राण हरेंगे कैसे ?
लक्ष्मण की व्यथा घटे नही ,
यह रात कटे अब कटे नही ।।
वीर बजरंगी घुमत फिरत है ,
राम भाव का नाम सुमिरत है ,
कल संग्राम चरम पे होगा ,
न्याय अब करम पे होगा ,
रावण की सेना बधिरों की है ,
राम नाम अधरों पर है ,
हनुमंत स्वामिभक्ति से हटे नही ,
यह रात कटे अब कटे नही ।।
आभा प्रलय की हटे नही ,
यह रात कटे अब कटे नही ।।
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