September 29, 2023

भूमिका By Deepak Agarwal

प्रातः

कालीन स्वर्णिम प्रकाश में अख़बार के पन्नों  को चाय के चुस्कियों से साथ टटोलते हुए अचानक मेरा ध्यान उस ख़बर पर गया जो अत्यंत हृदयविदारक था। वैसे भी मैं ऐसे सामाजिक विषयों पर लिखने का शौकिन रहा हूँ। अतः अकस्मात मेरे अंतरात्मा को यह आभास हुए जैसे मुझे भी कुछ लिखना चाहिए ताकि मेरे भी विचार समाज के आगे आए, मैं भी इस समस्या के समाधान में अपनी भागीदारी निभा पाऊं। यह लेख मेरे चेतन मन की वह चिंगारी है जिसका विस्फोट इस किताब में मैंने पेश किया है। मुझे उम्मीद है कि पाठकवर्ग द्वारा मुझे अवश्य लेखन के प्रति प्रोत्साहन मिलेगा। आप सभी का स्नेह यूँ ही बने रहने की कामना करना हूँ।इस लेख के माध्यम से मैंने समाज के उन हिस्सों को रेखांकित किया है। जिसमे बुनियादी परिवर्तन की आवश्यकता है। मैंने वैसे  व्यक्तियों पर अपने शिकंजे कसा है, जिन्होंने हैवानियत की हद पार कर दी है। मेरे द्वारा यही प्रयास रहा है कि मैं इस विकराल समस्या को एक रूप प्रदान करूँ। इस आलोचनात्मक लेख के माध्यम से मेरे द्वारा बालात्कार रूपी दुष्कृत के दिखाते हुए लोगों के मानसिकता को बदलने के प्रति आग्रह भी है।मेरे द्वारा इस लेख में हरसंभव यह प्रयास किया गया है कि मैं समाज के इन दरिंदों के चेहरों को बेनकाब कर पाऊँ। ताकि समाज में परिवर्तनशील की आँधी चल पाए। जैसे कि आप जानते ही है कि प्राचीन समय से ही स्त्रियाँ दैवीय स्वरूप रहीं है, जिनकी हम उपासना करते आए हैं लेकिन आज उसी दैवीय रूप को कलंकित किया जा रहा है। मेरे इस लेख में मेरे द्वारा कही जगहों पर समाज के उस हिस्सों को रेखांकित किया गया है,जो हमारे देश की न्यायव्यवस्था है।

जुर्म के अन्धेरे में रोशनी की तलाश

न पीड़िता का चेहरा पहचाने जाने लायक है, न उसका नाम पता है, न घर मालूम है और न ही फ़ोन नंबर.

 “ मारा था मुझे जिन बेटो की चाह में,

आज मारो मुझे उन बेटो से बचाने को ”।

आज वर्तमान में  महिलाएँ, लड़कियां एवं छोटी बच्चियाँ इन्हीं पंक्तियों के साथ अपना दुखपूर्ण जीवन व्यतीत कर रही हैं। आज हमारे कौम में ऐसा कोई दिन नहीं,जिस दिन कोई बालात्कार के वारदातों की खबर न आई हो।

इस वतन के हर बलात्कारी की एक ही सोच है कि उनके अपराधों के लिए जवाबदेही से बचने के लिए, अपने शक्ति के अनुसार सब कुछ करता है।  बचाव और चुप्पी अपराधी की पहली पंक्ति है। यदि गोपनीयता विफल हो जाती है, तो अपराधी अपने शिकार की विश्वसनीयता पर हमला करता है।आज यह बलात्कार करोड़ो महिलाओं को मन ही मन दबोच कर राख बनाने का काम करता है,अगर जल्द बलात्कारियों ने अपनी यह सोच न बदली तो जिस दिन वह आईने के सामने खड़े होंगे तो वह आईना उन्हें उनका चेहरा नही बल्कि उनकी नियत दिखाएगी। चाहें वह दुष्कर्म भरी सोच हो या फिर बलात्कार,वह हर जगह उन्हें खोखला बना देगी।आज के युग मे भी महिलाओं को मर्दो से कम होने का दर्जा दिया जाता है,और इसी सोच के कारण बलात्कार का जन्म हुआ।हमारा वतन, जहां नवरात्रि में कन्याओं को पूजा जाता है, एक लड़की को बहू बनाकर जब लाया जाता है तो उसे घर की लक्ष्मी माना जाता है और जब किसी घर में बेटी पैदा होती है तो भले ही ऊपरी मन से लेकिन माना जाता है कि आपके घर लक्ष्मी हुई है…इसे विडंबना ही कहिए कि एक ओर जिस बच्ची-बेटी,बहू,बहन और मां को लक्ष्मी माना जाता है,दूसरी ओर उसी कथित लक्ष्मी की अस्मिता को हर क्षण दोषित किया जाता है, जिसे हम दुष्कर्म कहते है।

कहा जाता है कि ईश्वर और मनुष्य में महीन सा अंतर  है,ईश्वर हमें बनाता है इसलिए उसे देवता का दर्जा दिया जाता है परंतु देवता के स्वरूप में आकर दानव बन जाना,इसमे इनकी मूर्खता दर्शाता है ना कि ईश्वर की।इसी व्यंगों के साथ मैं आपको कई उदाहरणों  की मदद लेकर बलात्कार जैसी काली किरण को बताने जा रहा हूँ,आशा करता हूँ कि आप बलात्कारियों के दुष्कर्म को देखें और अपना कोई मजबूत कदम उठाते हुए दीपक जलाएं और हर महिला के जीवन में रोशनी की एक नई किरण उजागर करें। हो सकता हैं आपका द्वारा उठाये गए कदम दुष्कर्ममुक्त  नवभारत का निर्माण करने में संजीवनी बूटी का काम करे।

आज के युग में मर्दो का मानना है कि अकेली औरत महफूज़ नही है परंतु,वह यह नही बताते की औरत क़े महफूज नही रहने का महत्वपूर्ण कारण क्या है? जिस दिन मर्दो ने अपनी जुबानी यह बात बता दिया कि इसका कारण क्या है तो शायद ही इस लेख की जरूरत पड़े।‘बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ’ काफी सरल सा नारा है जो आज हर जगह  इस्तेमाल किया जाता है परंतु क्या सही में इसकी शूरुआत हुई है? क्या लोग इस पंक्ति में अमल होते हैं? मेरा मानना है कि यह पंक्ति आज किसी पुस्तक में ही दब कर रह गयी है,जिसपर प्रकाश परना अति- आवश्यक हैं।जब महिलाएँ बचेगी ही नही तो पढ़ेगी कहाँ से?

महिलाओं का  जब बलात्कार इस कदर किया जाता है ,कि उसकी बचने की उम्मीद ही न हों।जब महिलाओं का बलात्कार होता है न, तो एक ही बात याद आती है:-

ये दाग़ जो लहू के, आँचल पर जड़े थे।

इस ढेर में बेजान से, अरमान पड़े थे।।

वो हूबहू इंसान से,  पर इंसान न थे।

वासना की कामना धर, हैवान खड़े थे।।

यहाँ हैवानों की मानसिकता को बदलने की जरूरत है,पढ़ाई के क्षेत्र में तो महिलाएँ पुरुषो से कोसों दूर तक समझदार हैं,परन्तु इस हैवानो को नारी अस्मिता व नारी सम्मान बताना जरूरी है।

क्या गलती थी प्रियंका रेड्डी, निर्भया और आसिफ जैसे सैकड़ो बच्चियों की जिनके साथ इन हैवानो ने ऐसे सर्वनाक वारदातों को अंजाम दिया। क्या जीने की लिए दुष्कर्म करना जरूरी है ? क्या इसके बिना ये रह नही सकते या फिर क्या यही सोच इनकी अपनी बहनों या माताओं के लिए भी  है? आज अखबारो की स्याही सूख भी नही पाती और वहीं दूसरी ओर खबर आ जाती है बलात्कार की….।आज अगर महिलाओं को सुरक्षित देखना है तो नारा ये लगाओ की “ हैवानो को पढ़ाओ बेटी बचाओ”!

२०१८ में हमारी कौम में १२७२५८ बलात्कार  की वारदात आयी थी और उसमें (९८%) केस खुद के घर का कोई सदस्य होता है ,यानी आज महिलाएँ खुद के घर मे सुरक्षित नही है।तो कौन सा मजहब है जो उनकी हिफाजत करेगा।

उसने स्कर्ट पहनी थी तो उसका बलात्कार हुआ,

उसने साड़ी पहनी थी तो उसका बलात्कार हुआ,

उसने बुरखा पहना तो भी उसका बलात्कार हुआ,

यानी दोष उनके कपड़े का तो नही है।

वो ६ साल की थी उसका बलात्कार हुआ,

वो १६ साल की थी उसका बलात्कार हुआ,

वो ५० साल की थी उसका बलात्कार हुआ,

यानी दोष उनकी उम्र का भी नही है।

वो हिंदू थी उसका बलात्कार हुआ,

वो मुस्लिम थी उसका बलात्कार हुआ,

वो क्रिश्चन थी उसका बलात्कार हुआ,

यानी दोष उनकी मजहब का भी नही है।

अगर किसी का दोष है तो वह उनकी सोच की है,उनकी मानसिकता की है।आज पूरी कौम से एक ही सवाल है की बलात्कार जैसी वारदाते क्यों होती है?इस मौके में मेरा ध्यान एक ऐसे समाज सुधारक पर जाता है जिन्होंने सुधारवादी आंदोलन चलाया था।क्योँकि कबीर दास ने अपने दोहे में कहा था –

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोई।

जो मन खोजा अपना, तो मुझसे बुरा न कोई।।

  बच्चियों के चीत्कार आखिर कब तक?

आज बलात्कारियों ने उस कौम की बच्चियों का दुष्कर्म किया है,जिस कौम में बच्चियों को भगवान का स्वरूप मन जाता है, जिनकी एक मासूम अदाओ से माँ बाप का दिन बन जाता था एवं जिसकी एक मुस्कान के आगे पत्थर भी पिघल बन जाता था।

क्या हमारा कौम वो है जहाँ बलात्कारी को सजा सुनाने के लिए भी सोचा जाता है ।कही वही अगर यह बात खुद की माँ-बहन की होती न, तो मुझे लगता नही की कोई भी शक़श रुकेगा  क्योंकि जब अपने पे बात आती है, तभी कोई कदम उठाया जाता है।वरना कौन किसका है यह नही सोचा जाता।याद रखना की अगर ”लुटेरा है आजाद तो अपमान सब का है,लुटी है एक बेटी तो लुटा सम्मान सब का है,छोड़ो वे बाते महजब क्योँकि ये हिंदुस्तान सब का है”।

हमारे देश में लड़कियों में हो रहे दुष्कर्म की संख्या नही गिनी जाती ,बल्कि हमारे देश में यह सोचा जाता है कि हमारे यहाँ हर मजहब में कितने लोग है ,कौन-सा मज़हब सबसे ज़्यादा मजबूत है,कौन आगे बढ़ेगा आदि।यहाँ पर तो साहब लोगो को अपने मजहब को बचाना है, न कि किसी की बेटियों को,यही है वो लोग जो अपने आप को हिंदुस्तानी कहते है।

वो बेटी किसकी थी,मत पूछना किसीसे ऐ रहगुज़र

बस तैयार रहना,उन नामुर्दो के टुकड़े हजार करने को”

  क्योँकि

 “कुछ दरिंदे जब लूट रहे थे मासूम की इज्जत,

नामर्द थे वो ,जो वहाँ खड़े होकर तमाशा देख रहे थें”।

बेटियों में ही खुदा  और राम बसते है और क्या यही है एक जीने का नजरिया की लोग बिना बलात्कार के अपना जीवन व्यतीत नही कर सकते, क्या जरूरी है दुष्कर्म?

क्या कीमत अदा करोगे,जो तुमने बलात्कार किया है ,

तूने एक लड़की का जिस्म जलाकर उसकी रूह का श्रृंगार किया है।

मासूम-सी उसने  माँ  बोलना  भी नही सीखा था और उसे पता चलता है कि उसकी माँ का बलात्कार के कारण मृत्यु हो गयी है।समाज के ऐसे व्यक्ति विशेष जो वासनात्मक कृत करने में ज़रा भी नही इतराते, इनकी नज़र मासूम सी बच्ची को भी छोड़ते। वह मासूम सी जान जिसने अभी अभी इस धरती पर नन्हे से कदम रखे है, इन मनुष्य रूपी गिद्ध इनको भी नोचने के लिए तैयार रहते हैं। यानी कहीं न कहीं इसकी मानसिकता मर चुकी है, यह वह गिद्ध है जो समाज के छवि को बिगाड़ने हेतु तत्पर रहते हैं। जब तक यह गिद्घ है, इन मासूमों की चीत्कार यूँही सुनाई देती रहेगी।।।।

“बहुत सरल है महिला का बलात्कार करके करना उसपर वार,

हिम्मत है तो ऐ हैवान!

महिलओं का सबके सामने बलात्कार करके फिर करना उसपे वार”।

 दुष्कर्म: मीडिया की कसौटी पर

अगर हम संवेदनशील है तो ही खबर हमे स्पर्श करती है अन्यथा आमतौर पर मीडिया की यही प्रतिक्रिया होती है कि उफ! फिर वही बलात्कार की खबर?इसमे क्या नया है? अगर तरीका नया है तो उनकी खबर काम की वरना, एक स्त्री का लूट जाना हमारे मानसिकता पर कुछ खास हलचल नही मचाता। यानी आज कुछ लोगों के अनुसार अगर महिलाओं का बलात्कार कोई अलग ढंग से किये बजाए तो ही उसकी चर्चा करना वरना उसी घटना पर चुप्पी साध लेना।

समाज के कुछ वर्गो के आदमी यह कहते है कि गलती महिलाओं की है,बलात्कर को महिलाएं खुद आमंत्रित करती है।यानी लोगो का मानना है कि महिलाओं को छोटे कपड़े नही पहनना चाहिए,अपने निर्धारित समय में घर पहुँच जाना चाहिए एवं घूमने में पाबंदी होनी चाहिए।यानी आज ये समाज पुरुष को दोषी न मानते वे महिलाओं को इसका दोष ठैरा रहे है,यानी इन लोगो के हिसाब से महिलाएं अपने तौर-तरीके बदलेगी।बलात्कार नारी वर्ग द्वारा धारण किया गए छोटे कपड़ो से नहीं बल्कि दुराचारी मनुष्य के अमानवीय वासनात्मक दृष्टिकोण का परिणाम है। जिससे नारी आज तक जूझ रही है। “स्त्री वह है जो भगवान को भी अपने गर्भ में भी रखने की ताकत रखती है।कितना ही उसे कुचल दो वो तब भी गर्व से सिर उठाकर चलती है”।

                   हमारा संविधान

सिर्फ कानून-प्रशासन के जरिए बलात्कार-मुक्त समाज बनाने की कोशिश एक धोखे से ज्यादा कुछ नहीं है। हमारे वतन में कुछ ही संविधान है जो बलात्कारियो को दंड दिलवाती है।भारतीय दंड विधान के अनुसार बलात्कार के दोषियों को धारा ३७६ के तहत सजह से कुरेदा जाता है।३७६ की धारा में कुल तीन भाग होते है।पहले भाग की धारा ३७६ (क) यह कहती है कि पति और पत्नी के अलग रहने के दौरान अगर पुरूष पत्नी के साथ संभोग करता है तो वो बलात्कार की श्रेणी में आता है।जिसके लिए संविधान सिर्फ २ साल की सजा देती है।दूसरा भाग ३७६(ख) की धारा के तहत आपके संरक्षण में रहने वाली किसी स्त्री के साथ संभोग भी इसी अपराध की श्रेणी में आएगा,जिसके लिए संविधान के अनुसार सिर्फ ५ वर्ष तक जेल और जुर्माना भरना पड़ेगा।तीसरे भाग ३८६(ग) को धारा यह कहती है कि किसी जेल की बंदी के साथ संभोग करने भी बलात्कार की श्रेणी में आता है,और उसकी सजा केवल ५ साल है।

भारतीय दंड संहिता में ऐसे प्रावधान है जिनके कारण बलात्कारी बच निकलते है।जबकि पीड़ित को समाज और परिवार में पीड़ा ताउम्र झेलनी पड़ती है।सन १९९३ के संपादकीय में राजेंद्र यादव ने अपनी पुस्तक ‘औरत होने की की सजह’ में हमे यह कहा है कि सत्ता, सांसद और न्यायपालिका पर पुरुषो का अधिकार होने की वजह से सारे कानून और उनकी व्याख्याएं इस प्रकार से की गई है कि आदमी के बच निकलने के हजारो चोर दरवाजे मौजूद हैं जबकि औरत के लिए कानूनी चक्रव्यूह से निकल पाना एकदम असंभव।

जब कानून नही है उन्हें सजा सुनाने को,

तो हमें उन बलात्कारियो को मारने का संविधान बनाने दो”।।

हमारे वतन में कुछ ही संविधान हैं जो महिलायों को उनका न्याय दिलाती हैं परंतु तबभी कम धाराएं होने की वजह से बलात्कारी जल्दी रिहा हो जाते हैं एक सजा सुनाने के लिए भी हर बार केस को टाल दिया जाता है या फिर एक से दूसरे विभाग मेंभेजा जाता हैं, वैसे भी हमारे भारत में ज्यादा केस एवं कम वकील होने के वाबजूद कई कैसो में गकत इंसान को दोषी ठहरा दिया जाता हैं।वैसे तो हर बलात्कारियो को ‘सजा ऐ मौत’ या फिर पूरे देश के सामने मारना चाहिए क्योँकि चार दिवारी के अन्दर उनको मारना या तो मूर्खता दर्शाता है या फिर उनकी निडरता को बढ़ाता हैं।नीचे दिए गए चित्र TABLE 3A.1  में (नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो) के तहत पूरे देश में साल २०१६ से २०१८ तक में तकरीबन ४०००० महिलाओं के साथ दुष्कर्मो का परिणाम है:-

निष्कर्ष के तौर पर मैं यही कहना चाहूँगा कि  मेरे द्वारा इस लेख के माध्यम से समाज के अंदर हलचल जरूर मचे। मैं एक ऐसी हलचल की कामना करता हूँ , जिसे मैं सुधारवादी हलचल कहना चाहूँगा।समाज में जागरूकता की अति आवश्यकता है। मैंने हमेशा महसूस किया है कि कलम की ताकत सर्वाधिक होती है, मैंने भी अपने इस लेखन से समाज को जगाने का प्रयास किया है। मेरी यही दुआ है कि निकट भविष्य में बलात्कारी रूपी ज्वलंत समस्या का निदान हो, लोग अपनी जिम्मेदारियों को समझे, न्यायव्यवस्था में इन बलात्कारियों के प्रति ऐसी भयावह सज़ा का प्रावधान हो कि इनकी रूह कांप जाए। हमें नारियों के प्रति सम्मान, स्नेह एवं समानता का दर्ज़ा देते हुए देश का विकाश करना है। हमें एक ऐसे हिंदुस्तान का निर्माण करना है, जिसमे लोग ये नही कहे की ‘हमें बेटियों का बोझा नही लेना’ बल्कि ये कहे कि ‘मुस्कुराइए बेटी ने आपके घर जन्मा है

— Deepak Agarwal

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